शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

कस्बे की लड़कियां भी उड़ना चाहती हैं

कस्बे की लड़कियां भी उड़ना चाहती हैं
औरों की तरह।
वो भी चाहती हैं पढ़ना-लिखना।
पढ़-लिखकर समाज में योगदान देने की
उनकी भी होती है हसरत।
लेकिन ये हसरत हमेशा अधूरी ही रह जाती है।
क्योंकि,
यह रुढिवादी समाज
उसके पंखों को उड़ने की इजाजत नहीं देता।
फिर वो पूरा करे तो करे कैसे
अपने अरमानों को।

वह बस जीभर कर निहारती रहती हैं
शहरों-महानगरों की उन लड़कियों को
जो अपनी मर्जी-मुताबिक
कम से कम पढ़ाई तो करती हैं।
उसे अपने करियर को चुनने का हक तो मिला है।
इन्हीं सवालों में उलझते हुए
कस्बे की लड़कियों की हो जाती है शादी
और फिर नए घर-परिवार की उलझनें।
फिर कहां मिलता है
अपने बारे में सोचने के लिए समय।
बस ताकती रहती है आसमान को।
काश हमें भी मिली होती उड़ने की इजाजत
अब इस अधूरी चाहत को बच्चों में
पूरा करने की देखती है सपना।
काश! उन्हें भी इसकी इजाजत मिली होती।

तो यूं न आसमा को निहारती
ये कस्बे की लड़कियां।
वो भी
अपने सीमित संसाधनों से ही
सही
कम से कम
अपने सपनों को पूरा करने
कोशिश तो करती।

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