गुरुवार, 24 सितंबर 2015

जब से तुमसे मिली.

जब से तुमसे मिली...
मैं प्रेम को लिखने लगी...
जब तुम्हारी आखों की,
गहराईयों में उतरी तो...
अंतहीन..अद्रश्य...
प्रेम को मैं लिखने लगी...
ढूँढ रही हूँ इन दिनों
अपना खोया हुआ अस्तित्व
और छू कर देखना चाहती हूँ
अपना आधा अधूरा कृतित्व
जो दोनों ही इस तरह
लापता हो गये हैं कि
तमाम कोशिशों के बाद भी
कहीं मिल नहीं रहे हैं,



जब आप बीमार थे
तो कभी सोचा न था
यूँ चले जाओगे
और चले गए तो
आप इतना याद आओगे...


जुखाम बहुत है...
खांसी भी आ रही है
आँसू पोंछने वाले तो
बहुत मिलते हैं....
कंधो को छूते है
पीठ थपथपाते हैं
परन्तु.....
नाक पोंछने को
कोई नहीं आता....
आज्ञा दें यशोदा को


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

सबसे पहले हम अपने आप से पूछे की हम दौड़ क्यो रहे है।

  सबसे पहले हम अपने आप से पूछे की हम दौड़ क्यो रहे है। सबके दौड़ने के कारण अलग अलग होते है। शेर दौड़ता है अपने शिकार को पकड़ने के लिए हिरण दौड़ता...