पुरुष को समझना
इतना भी सरल नहीं
जितना समझ लिया जाता है...
संवेंग, कल्पनाएं,
भावनाएं और अभिव्यक्तियां...
जो छिपी हैं
भीतर
गहराइयों में
हृदय के
किसी अंतिम कोने में...
जहां तक
पहुंच पाना
किसी भी साधारण
गोताखोर के लिए
पार पाना
सरल नहीं...
दूर से देखने पर लगता है
मानो पार पा लिया
किन्तु निकट जाने पर लगता है
जहां से प्रारम्भ किया था
वहीं हैं..!
उन्हें समझने के लिए
अपनाना होता है
उनके भावों को...
छूना होता है
उनकी आत्मा को...
पकड़ना होता है
उनके चंचल मन को...
समेटना होता है
उनके उन तमाम दुखों को,
जिनमें रहकर
उन्होंने पूरी उम्र गुजार दी
सुनना होता है उन्हें,
अपने तमाम
भावों को त्याग कर
बस मातृत्व भाव में...
और पोंछना होता है
उनके बहते आंसुओं को...
क्योंकि पुरुष का
किसी के सामने
अपने दुखों और
परेशानियों को
साझा करना
जितना कठिन है
उससे अधिक कठिन है
पुरुष के
आंसुओं को समेटना...
तब पुरुष ठहरता है
और जब पुरुष ठहरता है
तब वह तटस्थ हो जाता है
अपनी स्त्री के लिए...!!