शनिवार, 6 जुलाई 2024

पुरुष को समझना इतना भी सरल नहीं

  पुरुष को समझना

इतना भी सरल नहीं
जितना समझ लिया जाता है...
अनेकों
संवेंग, कल्पनाएं,
भावनाएं और अभिव्यक्तियां...
जो छिपी हैं
भीतर
गहराइयों में
हृदय के
किसी अंतिम कोने में...
जहां तक
पहुंच पाना
किसी भी साधारण
गोताखोर के लिए
पार पाना
सरल नहीं...
दूर से देखने पर लगता है
मानो पार पा लिया
किन्तु निकट जाने पर लगता है
जहां से प्रारम्भ किया था
वहीं हैं..!
उन्हें समझने के लिए
अपनाना होता है
उनके भावों को...
छूना होता है
उनकी आत्मा को...
पकड़ना होता है
उनके चंचल मन को...
समेटना होता है
उनके उन तमाम दुखों को,
जिनमें रहकर
उन्होंने पूरी उम्र गुजार दी
सुनना होता है उन्हें,
अपने तमाम
भावों को त्याग कर
बस मातृत्व भाव में...
और पोंछना होता है
उनके बहते आंसुओं को...
क्योंकि पुरुष का
किसी के सामने
अपने दुखों और
परेशानियों को
साझा करना
जितना कठिन है
उससे अधिक कठिन है
पुरुष के
आंसुओं को समेटना...
तब पुरुष ठहरता है
और जब पुरुष ठहरता है
तब वह तटस्थ हो जाता है
अपनी स्त्री के लिए...!!



धीरे से

 


धीरे से

कुछ कहकर
बदली में छुप जाता है वो चांद..!
निखरा निखरा है
बरसात के बाद आसमान का चेहरा..!
चांदनी में धुली धुली पत्तों की
भींगी शाखें
झुकी जाती है जमीन पर...!
कई नामों से
जैसे कोई बुला रहा हो मुझको...!
हवा यह पाक सी महकी हुई
पेड़ों पर बहती है जब जब
मोती से गिरते है
पत्तों के किनारों से...!
रात कोई
जादू लिए दामन में
चुपके से चली आई है मेरी खिड़की के
बाहर...!
कहती है...
काश !
इस लम्हे में कही आप भी
शामिल होते..!!

जैसे कुछ लिख देने से

 


जैसे कुछ लिख देने से

बन ही जाती है
कविता, नज़्म, रुबाई...!
मन में अनुराग भरा हो तो
एक दिन हो ही जाता है प्रेम...!
जंगल में पेड़ों के नीचे
चुपचाप खड़े हो
तो सुनाई देने लगती है
ओस की आवाज़ें...!
डूबने से डरने वालों को
डुबा ही लेती है किताबें..!
ज्ञान की थाह बना ही देती है
'ज्ञानेन्द्रपति'...!
उड़ने की चाह एक दिन
पंख उगा ही देती है...!
मन के द्वंद्वों का ज़वाब ढूंढते
कई लोग बन जाते हैं 'बुद्ध...!'
विचारों की भट्टी तपाते हुए
एक दिन 'अज्ञेय' बना ही देती है...!
आकाश गंगाओं की दूरी पाट कर भी
रुह अपना ठिकाना ढूंढ लेती है..!
जानती हूं ...
एक दिन तुम भी मुझे
मिल ही जाओगे !!

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