गुरुवार, 21 अगस्त 2025

मेरे परिवार में हम चार भाई-बहन थे

 मेरे परिवार में हम चार भाई-बहन थे — मैं, और मेरी तीन बहनें। दो बहनें बड़े शहरों में अच्छे घरों में ब्याही गई थीं, और एक थी राधा… जो किस्मत के मामले में सबसे कमजोर निकली। सात साल पहले एक सड़क हादसे में उसका पति गुजर गया। तब से वह अकेली, दो छोटे बच्चों के साथ संघर्ष कर रही थी।

सच कहूँ तो, उस हादसे के बाद भी मैंने उससे कभी ढंग से बात नहीं की। शायद उसकी गरीबी, मैले कपड़े और थकी-हारी सूरत देखकर मेरे मन में अनजाने में एक दूरी बन गई थी। जब भी वह मेरे घर आती, मैं उसे नजरअंदाज कर देता, यहाँ तक कि उल्टा-सीधा बोल देता था। मेरी पत्नी भी उसे देख कर चिढ़ जाती।

राधा फटे-पुराने कपड़ों में आती, बच्चे भी आधे नंगे पैर, घिसे हुए कपड़ों में होते… लेकिन जाते समय मेरे तीनों बच्चों के हाथ में दस-दस रुपए जरूर रख जाती। मुझे यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। मेरे लिए तो दस रुपए कोई मायने नहीं रखते थे, लेकिन मुझे लगता था, ये उसके बच्चों के लिए ज्यादा जरूरी हैं। कई बार मैंने वो पैसे किसी और को दे दिए, ताकि मेरे बच्चों के पास न रहें।

उसकी हालत ऐसी थी कि पाँच रुपए बचाने के लिए छह किलोमीटर पैदल चल देती। फिर भी, जब-जब मेरे घर आती, अपने पास से कुछ न कुछ जरूर दे जाती। जबकि मेरी बाकी दोनों बहनों के पास काफी पैसा था, लेकिन उन्होंने आज तक मेरे बच्चों को एक रुपया भी नहीं दिया।

एक साल पहले मेरी पत्नी गंभीर रूप से बीमार पड़ी। अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा, और इलाज खिंचते-खिंचते 36 दिन हो गए। डॉक्टर बार-बार कहते—"अभी कुछ दिन और रहना होगा"। इलाज में इतना खर्च हो गया कि पैसों की तंगी आ गई।

मैंने अपनी अमीर बहनों से मदद मांगी, तो दोनों ने मिलकर सिर्फ तीन हजार रुपए दिए और सिर्फ एक बार अस्पताल आईं। लेकिन राधा… वह हर दूसरे-तीसरे दिन आ जाती—कभी फल, कभी दूध, कभी बस एक मुस्कान लेकर। वही पुराने, मैले कपड़े… लेकिन उसका चेहरा चिंता से भरा हुआ। मैं फिर भी उससे बहुत औपचारिक ही रहता, कोई खास बात नहीं करता।

एक दिन वह अस्पताल के बाहर बैठी थी, गार्ड ने कपड़ों के कारण उसे भगा दिया। मैं वहीं था, लेकिन चुप रहा। मन में थोड़ी चुभन हुई।
कुछ दिनों बाद, मैं काउंटर पर बिल भरने पहुँचा तो 500 रुपए कम पड़ गए। उसी समय राधा वहाँ आ गई। उसने अपने पुराने फटे बैग में हाथ डाला, लेकिन नीचे से बैग फट गया और एक मिट्टी का गुल्लक गिरकर टूट गया। उसमें सिर्फ दस-बीस के नोट और सिक्के थे, कुल मिलाकर करीब 550 रुपए। उसने बिना सोचे मुझे 500 रुपए थमा दिए और बाकी सिक्के खुद जमीन से बटोरने लगी।
वो नज़ारा देखकर मेरी आँखें भर आईं। सोचा—जो बहन एक-एक रुपया जोड़कर घर चलाती है, वो बिना हिचक अपने भाई के लिए इतने पैसे दे रही है… और मैंने सालों तक उसके साथ क्या किया? उस दिन दिल में जैसे किसी ने पत्थर रख दिया हो, पछतावा भीतर तक उतर गया।
पत्नी धीरे-धीरे ठीक हुई और घर आ गई। दो महीने बाद, सैलरी मिलने पर मैंने सोचा राधा के घर जाऊँ। उसका घर एक छोटे से कमरे का था, फर्श पर चटाई बिछी हुई। वह अपने बच्चों के साथ चावल खा रही थी—सिर्फ उबला चावल, नमक के साथ। मैंने मज़ाक में कहा—"अरे, मुझे नहीं पूछोगी खाने के लिए?"
वह हड़बड़ा गई—"भैया, यह खाना आपके लिए ठीक नहीं है, थोड़ा रुको, मैं कुछ और बना देती हूँ।"
मैंने जिद की—"आज तो यही खाऊँगा।"

वह चुप हो गई, कमरे में गई, और एक प्लेट में गीला चावल और लोटे में पानी लेकर आई। सिर झुकाकर बोली—"भैया, इसमें नमक डाला है, हमें अच्छा लगता है… कई दिनों बाद बना है।"

मेरे गले में शब्द अटक गए। मैं कुछ और बोलता, उससे पहले ही उठ गया और जाते-जाते उसके बच्चों को 500-500 रुपए और राधा को 2000 रुपए थमा दिए। उसने बहुत मना किया, लेकिन मैंने जबरदस्ती दी। बच्चों ने भी पहले लेने से इंकार किया, लेकिन आखिरकार मान गए।

उस दिन घर आकर मैंने पत्नी को सब बताया। उसकी आँखों में भी आंसू थे। उसी महीने मैंने राधा के दोनों बच्चों का दाखिला स्कूल में करवा दिया, उसके घर की मरम्मत करवाई, और तय कर लिया कि हर महीने सैलरी का 10,000 रुपए उसे दूँगा।

अब मुझे एहसास है—पैसा बहुत कुछ खरीद सकता है, लेकिन राधा जैसा दिल… वो किस्मत वालों को ही मिलता है।

अगर आपके पास भी कोई गरीब लेकिन नेकदिल रिश्तेदार है, तो उसकी मदद करने में देर न करें। हो सकता है, कल वह न हो… और आपको अपने जीवन का सबसे बड़ा अफसोस रह जाए।



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टपका का डर


बरसात का मौसम था। सुबह से ही काले बादल आसमान में छा गए थे। धीरे-धीरे बूंदाबांदी शुरू हुई और फिर मूसलधार बारिश में बदल गई। चारों ओर पानी ही पानी नज़र आने लगा। नदियाँ-नाले उफान पर थे, गलियों में पानी भर गया था। दादी माँ का पुराना कच्चा घर भी इस बारिश की मार झेल रहा था। छप्पर पुराने बांस और फूस से बना था, जो अब जगह-जगह से कमजोर पड़ चुका था। बारिश के तेज़ होने के साथ ही छप्पर से पानी टपकने लगा— टप-टप, टप-टप।

दादी माँ घर के कोने में चूल्हा जलाकर भात (चावल) पका रही थीं, पर बारिश का पानी चूल्हे के ऊपर भी टपकने लगा। उन्हें बहुत झुंझलाहट हो रही थी। वे बड़बड़ाने लगीं— "हाय रे ये टपका! इससे तो जीना मुश्किल हो गया है।" बारिश के साथ थोड़ी देर में बेर के बराबर बड़े-बड़े ओले गिरने लगे। छप्पर और ज़ोर से हिलने लगा।
उधर, जंगल के पास एक बाघ भी इस ओलों की मार से परेशान हो गया। ओले उसके सिर, पीठ और पैरों पर जोर से पड़ रहे थे। ठंडी हवा और पानी के साथ ओलों की चोट ने उसे बेचैन कर दिया। ठिकाना ढूँढते-ढूँढते वह इधर-उधर भागने लगा। तभी उसे दादी माँ का घर दिखाई दिया। भागते-भागते वह उनके आँगन तक पहुँच गया।
अंदर दादी माँ को पता ही नहीं चला कि बाहर बाघ खड़ा है। वे अब भी टपकते पानी से परेशान थीं और बार-बार ऊपर देखतीं कि कहाँ से पानी गिर रहा है। उन्होंने गुस्से में कहा— "मुझे इस टपका से जितना डर लगता है, उतना तो बाघ से भी नहीं!"

बाहर खड़ा बाघ यह सुनकर चौंक गया। उसने सोचा— "अरे! यह बूढ़ी औरत मुझसे नहीं डरती? लेकिन इस 'टपका' से डरती है? जरूर यह टपका नाम का जानवर मुझसे भी बड़ा और खतरनाक होगा।"
बाघ ने चारों ओर घबराकर देखा। कहीं यह टपका आ न जाए! उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। वह बिना देर किए मुड़ा और सिर पर पैर रखकर भाग निकला। दौड़ते-दौड़ते वह दूर जंगल में गायब हो गया।
दादी माँ को यह पता ही नहीं चला कि उन्होंने अनजाने में एक बाघ को भगा दिया। वे अब भी अपने चूल्हे और छप्पर की चिंता में लगी रहीं। बाहर आसमान में बादल गरज रहे थे, पर बाघ की नजर में दादी माँ उस दिन जंगल की सबसे निडर इंसान बन गईं।



शनिवार, 28 सितंबर 2024

राम नाम सत्य" है

 राम नाम सत्य" है......!!

अकबर के शासन काल - के समय कि बात है!
जब तुलसीदास अपने गांव में रहते थे। वह सदैव राम की भक्ति में लिप्त रहते थे। उनको घर वालों ने, और गाँव वालों ने- ढोंगी कह कर घर से बाहर निकाल दिया,! तो तुलसीदास जी, गंगा जी के घाट पर रहने लगे। और वहीं- प्रभु की भक्ति करने लगे।
जब तुलसीदास "रामचरितमानस " की रचना शुरू कर रहे थे! उसी दिन उनके गांव में एक लड़के का विवाह हुआ, और वह लडका अपनी नववधु को लेकर अपने घर आया। रात को किसी कारण वश उस लड़के की मृत्यु हो गई।
लड़के के घर वाले रोने लगे। सुबह होने पर सब लोग लड़के को अर्थी पर सजाकर शमशान घाट ले जाने लगे!
तो उस लड़के की पत्नी भी सती होने की इच्छा से अपने पति की अर्थी के पीछे पीछे जाने लगी।
लोग उसी मार्ग से जा रहे थे- जिस मार्ग में तुलसीदास जी रहते थे।
सब लोग जा रहे थे - तो लड़के की पत्नी की नजर तुलसीदास जी पर पड़ी।
उस नववधु ने सोचा- में अपने पति के साथ सती होने जा रही हूँ!
एक बार इस ब्राह्मण देवता को प्रणाम कर लेती हूँ!
वह नववधु नहीं जानती थी- कि ये तुलसीदास जी है।
उसने तुरंत तुलसीदास जी को पैर छुकर प्रणाम किया,और तुलसीदास ने उसे "अखण्ड सौभाग्यवती " होने का आशीर्वाद दिया!
तब सब लोग हँसने लगे,और बोले: तुलसीदास जी! हम तो सोचते थे,तुम पाखंडी हो, लेकिन तुम तो बहुत बड़े मूर्ख भी हो- यह अर्थी देख रहे हो- इस लड़की का पति मर चुका है।
यह अखण्ड सौभाग्यवती कैसे हो सकती है....? सब बोलने लगे- तू भी झुठा, तेरा राम भी झुठा।
तुलसीदास जी बोले: हम झुठे हो सकते हैं,लेकिन मेरे राम कभी भी झुठे नही हो सकते हैं।
सबने बोला: तब प्रमाण दो।
तुलसीदास जी ने अर्थी को रखवाया,और उस मरे हुये लड़के के पास जाकर उसके कान में बोला: -"राम नाम सत्य " है! ऐसा एक बार बोला तो लड़का हिलने लगा। दूसरी बार फिर बोला तुलसीदास जी ने लड़के के कान में- "राम नाम सत्य "है! लड़का थोडा सचेत हुआ। तुलसीदास जी ने फिर तीसरी बार उस लड़के के कान में बोला- "राम नाम सत्य " है! तो मृतक लड़का अर्थी से नीचे उठ कर बैठ गया। सभी को बहुत आश्चर्य हुआ, कि मृतक कैसे जीवित हो सकता है। सबने तुलसी दास जी को सिद्ध सन्त मान लिया-और तुलसीदास जी के चरणों में दण्डवत प्रणाम करके क्षमा मांगने लगे। तुलसीदास जी बोले:अगर आप लोग यहाँ इस मार्ग से नहीं जाते,तो मेरे राम के नाम को सत्य होने का प्रमाण कैसे मिलता ये तो सब हमारे राम जी की लीला है उसी दिन से मृतक के पीछे राम नाम सत्य है बोलने की प्रथा चल पड़ी..!!
जय श्रीराम 🙏🙏



शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

ख्वाहिश नहीं, मुझे

 


ख्वाहिश नहीं, मुझे

मशहूर होने की,"
_आप मुझे "पहचानते" हो,_
_बस इतना ही "काफी" है।_😇
_अच्छे ने अच्छा और_
_बुरे ने बुरा "जाना" मुझे,_
_जिसकी जितनी "जरूरत" थी_
_उसने उतना ही "पहचाना "मुझे!_
_जिन्दगी का "फलसफा" भी_
_कितना अजीब है,_
_"शामें "कटती नहीं और_
-"साल" गुजरते चले जा रहे हैं!_
_एक अजीब सी_
_'दौड़' है ये जिन्दगी,_
-"जीत" जाओ तो कई_
-अपने "पीछे छूट" जाते हैं और_
_हार जाओ तो,_
_अपने ही "पीछे छोड़ "जाते हैं!_😥
_बैठ जाता हूँ_
_मिट्टी पे अक्सर,_
_मुझे अपनी_
_"औकात" अच्छी लगती है।_
_मैंने समंदर से_
_"सीखा "है जीने का तरीका,_
_चुपचाप से "बहना "और_
_अपनी "मौज" में रहना।_
_ऐसा नहीं कि मुझमें_
_कोई "ऐब "नहीं है,_
_पर सच कहता हूँ_
_मुझमें कोई "फरेब" नहीं है।_
_जल जाते हैं मेरे "अंदाज" से_,
_मेरे "दुश्मन",_
-एक मुद्दत से मैंने_
_न तो "मोहब्बत बदली"_
_और न ही "दोस्त बदले "हैं।_
_एक "घड़ी" खरीदकर_,
_हाथ में क्या बाँध ली,_
_"वक्त" पीछे ही_
_पड़ गया मेरे!_😓
_सोचा था घर बनाकर_
_बैठूँगा "सुकून" से,_
-पर घर की जरूरतों ने_
_"मुसाफिर" बना डाला मुझे!_
_"सुकून" की बात मत कर-
-बचपन वाला, "इतवार" अब नहीं आता!_😓😥
_जीवन की "भागदौड़" में_
_क्यूँ वक्त के साथ, "रंगत "खो जाती है ?_
-हँसती-खेलती जिन्दगी भी_
_आम हो जाती है!_😢
_एक सबेरा था_
_जब "हँसकर "उठते थे हम,_😊
-और आज कई बार, बिना मुस्कुराए_
_ही "शाम" हो जाती है!_😓
_कितने "दूर" निकल गए_
_रिश्तों को निभाते-निभाते,_😘
_खुद को "खो" दिया हमने_
_अपनों को "पाते-पाते"।_😥
_लोग कहते हैं_
_हम "मुस्कुराते "बहुत हैं,_😊
_और हम थक गए_,
_"दर्द छुपाते-छुपाते"!😥😥
_खुश हूँ और सबको_
_"खुश "रखता हूँ,_
_ *"लापरवाह" हूँ ख़ुद के लिए_*
*-मगर सबकी "परवाह" करता हूँ।_😇🙏*
*_मालूम है_*
*कोई मोल नहीं है "मेरा" फिर भी_*
*कुछ "अनमोल" लोगों से_*
*-"रिश्ते" रखता हूँ।*

बुधवार, 4 सितंबर 2024

सतपुतिया !





सत +पुतिया जैसा की नाम से ही पता चलता है कि सत अर्थात सात पुतिया शब्द पुत मतलब पुत्र से लिया गया है।
पुराने किस्से कहानी में अक्सर राजा, बनिया इत्यादि के सात पुत्र का वर्णन मिलता है।
जैसा की इसका नाम सात पुत्र से संबंधित है उसी प्रकार इसको खाने के पीछे भी वजह है।
उत्तर प्रदेश, बिहार या अन्य राज्यों में पुत्र के लम्बी आयु, उत्तम स्वास्थ्य के लिए माताएँ " ज्यूतिया "नाम का व्रत करती है। उस व्रत में सतपुतिया की सब्जी खाना अनिवार्य माना जाता है।
जहाँ पर आसानी से उपलब्ध हो जाती है वहाँ पर तो नहीं लेकिन पंजाब जैसे राज्यों में जहाँ पर इसकी खेती नहीं होती लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार के रहने वाले अधिक है और व्रत के दिन इस सब्जी की मांग होती है। व्रत वाले दिन वहाँ पर तो ये सोने के भाव बिकती है। उसी दिन ही सिर्फ सब्जी मंडी में दिखाई भी देती है।
गांव में तो गन्ने, मक्के के खेत में बो दी जाती है, कहीं खेतों की मेढ़ पर बो देते है और डंडे गाड़ कर रस्सी बांधकर चढ़ा देते है। ये ऐसी सब्जी है जिसका अपना कोई खेत नहीं होता है ये सहफ़सल के रूप में अन्य सब्जी या फ़सल के साथ खेत के किनारे या छप्पर, टाटी पर लटक कर अपना जीवन व्यतीत कर लेती है।
खेतों की मेढ़ पर बाढ़ जिसे हमारे अवध क्षेत्र में पाढ कहते है उस पर खूब फ़ैल जाती है। शाम के समय इस पर छोटे छोटे पीले फूलों की बाहार आ जाती है जिस पर तितलियाँ, भौरे गुन गुन गाते हुए आनंद लेते है।
ये सात फल के गुच्छे में होती है इसलिए इसका नाम सतपुतिया पड़ा है।
ये चार अंगुल से अधिक बड़ी नहीं होती है। बस जैसे ही तनिक हष्ट पुष्ट दिखे तोड़ लीजिये।
सुबह सुबह इसे नहला धुला कर, काट लीजिये। लोहे की कड़ाही में सरसों के तेल में,लहसुन,मिर्च का डाढ़ा (तड़का )देकर इसे धीमी आंच पर बनाइये। ये सब्जी पानी अधिक छोड़ती है इसलिए जब इसका पानी लगभग सूख जाये तब तीखा, चटपटा मिर्ची वाला नमक डालें। जब कड़ाही में हल्की हल्की चिपकने लगे तब समझिये पक गयी है।
फिर क्या गर्म गर्म रोटी या पराठे के साथ सुबह के नाश्ते का आनंद लें और स्वस्थ रहे, हमेशा निरोगित रहे।

 
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गुरुवार, 22 अगस्त 2024

हमारे बुजर्ग हम से वैज्ञानिक रूप से बहुत आगे थे।

 हमारे बुजर्ग हम से वैज्ञानिक रूप से बहुत आगे थे। थक हार कर वापिस उनकी ही राह पर आना पड़ रहा है। 😊

1. मिट्टी के बर्तनों से स्टील और प्लास्टिक के बर्तनों तक और फिर कैंसर के खौफ से दोबारा मिट्टी के बर्तनों तक आ जाना।

2. अंगूठाछाप से दस्तखतों (Signatures) पर और फिर अंगूठाछाप (Thumb Scanning) पर आ जाना।
3. फटे हुए सादा कपड़ों से साफ सुथरे और प्रेस किए कपड़ों पर और फिर फैशन के नाम पर अपनी पैंटें फाड़ लेना।

4. सूती से टैरीलीन, टैरीकॉट और फिर वापस सूती पर आ जाना।
5. जयादा मशक़्क़त वाली ज़िंदगी से घबरा कर पढ़ना लिखना और फिर IIM MBA करके आर्गेनिक खेती पर पसीने बहाना।

6. क़ुदरती से प्रोसेसफ़ूड (Canned Food & packed juices) पर और फिर बीमारियों से बचने के लिए दोबारा क़ुदरती खानों पर आ जाना।

7. पुरानी और सादा चीज़ें इस्तेमाल ना करके ब्रांडेड (Branded) पर और फिर आखिरकार जी भर जाने पर पुरानी (Antiques) पर उतरना।

8. बच्चों को इंफेक्शन से डराकर मिट्टी में खेलने से रोकना और फिर घर में बंद करके फिसड्डी बनाना और होश आने पर दोबारा Immunity बढ़ाने के नाम पर मिट्टी से खिलाना....

9. गाँव, जंगल, से डिस्को पब और चकाचौंध की और भागती हुई दुनियाँ की और से फिर मन की शाँति एवं स्वास्थ के लिये शहर से जँगल गाँव की ओर आना।

इससे ये निष्कर्ष निकलता है कि टेक्नॉलॉजी ने जो दिया उससे बेहतर तो प्रकृति ने पहले से दे रखा था।
आभार स्वदेशी ❤️🙏




शनिवार, 6 जुलाई 2024

पुरुष को समझना इतना भी सरल नहीं

  पुरुष को समझना

इतना भी सरल नहीं
जितना समझ लिया जाता है...
अनेकों
संवेंग, कल्पनाएं,
भावनाएं और अभिव्यक्तियां...
जो छिपी हैं
भीतर
गहराइयों में
हृदय के
किसी अंतिम कोने में...
जहां तक
पहुंच पाना
किसी भी साधारण
गोताखोर के लिए
पार पाना
सरल नहीं...
दूर से देखने पर लगता है
मानो पार पा लिया
किन्तु निकट जाने पर लगता है
जहां से प्रारम्भ किया था
वहीं हैं..!
उन्हें समझने के लिए
अपनाना होता है
उनके भावों को...
छूना होता है
उनकी आत्मा को...
पकड़ना होता है
उनके चंचल मन को...
समेटना होता है
उनके उन तमाम दुखों को,
जिनमें रहकर
उन्होंने पूरी उम्र गुजार दी
सुनना होता है उन्हें,
अपने तमाम
भावों को त्याग कर
बस मातृत्व भाव में...
और पोंछना होता है
उनके बहते आंसुओं को...
क्योंकि पुरुष का
किसी के सामने
अपने दुखों और
परेशानियों को
साझा करना
जितना कठिन है
उससे अधिक कठिन है
पुरुष के
आंसुओं को समेटना...
तब पुरुष ठहरता है
और जब पुरुष ठहरता है
तब वह तटस्थ हो जाता है
अपनी स्त्री के लिए...!!



मेरे परिवार में हम चार भाई-बहन थे

 मेरे परिवार में हम चार भाई-बहन थे — मैं, और मेरी तीन बहनें। दो बहनें बड़े शहरों में अच्छे घरों में ब्याही गई थीं, और एक थी राधा… जो किस्मत ...