बरसात का मौसम था। सुबह से ही काले बादल आसमान में छा गए थे। धीरे-धीरे बूंदाबांदी शुरू हुई और फिर मूसलधार बारिश में बदल गई। चारों ओर पानी ही पानी नज़र आने लगा। नदियाँ-नाले उफान पर थे, गलियों में पानी भर गया था। दादी माँ का पुराना कच्चा घर भी इस बारिश की मार झेल रहा था। छप्पर पुराने बांस और फूस से बना था, जो अब जगह-जगह से कमजोर पड़ चुका था। बारिश के तेज़ होने के साथ ही छप्पर से पानी टपकने लगा— टप-टप, टप-टप।
दादी माँ घर के कोने में चूल्हा जलाकर भात (चावल) पका रही थीं, पर बारिश का पानी चूल्हे के ऊपर भी टपकने लगा। उन्हें बहुत झुंझलाहट हो रही थी। वे बड़बड़ाने लगीं— "हाय रे ये टपका! इससे तो जीना मुश्किल हो गया है।" बारिश के साथ थोड़ी देर में बेर के बराबर बड़े-बड़े ओले गिरने लगे। छप्पर और ज़ोर से हिलने लगा।
उधर, जंगल के पास एक बाघ भी इस ओलों की मार से परेशान हो गया। ओले उसके सिर, पीठ और पैरों पर जोर से पड़ रहे थे। ठंडी हवा और पानी के साथ ओलों की चोट ने उसे बेचैन कर दिया। ठिकाना ढूँढते-ढूँढते वह इधर-उधर भागने लगा। तभी उसे दादी माँ का घर दिखाई दिया। भागते-भागते वह उनके आँगन तक पहुँच गया।
अंदर दादी माँ को पता ही नहीं चला कि बाहर बाघ खड़ा है। वे अब भी टपकते पानी से परेशान थीं और बार-बार ऊपर देखतीं कि कहाँ से पानी गिर रहा है। उन्होंने गुस्से में कहा— "मुझे इस टपका से जितना डर लगता है, उतना तो बाघ से भी नहीं!"
बाहर खड़ा बाघ यह सुनकर चौंक गया। उसने सोचा— "अरे! यह बूढ़ी औरत मुझसे नहीं डरती? लेकिन इस 'टपका' से डरती है? जरूर यह टपका नाम का जानवर मुझसे भी बड़ा और खतरनाक होगा।"
बाघ ने चारों ओर घबराकर देखा। कहीं यह टपका आ न जाए! उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। वह बिना देर किए मुड़ा और सिर पर पैर रखकर भाग निकला। दौड़ते-दौड़ते वह दूर जंगल में गायब हो गया।
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